Friday 28 January 2011

ज़माने बीत जाते हैं,

कभी नज़रें मिलाने में ज़माने बीत जाते हैं,
कभी नज़रें चुराने में ज़माने बीत जाते हैं,

किसी ने आँख भी खोली तो सोने की नगरी में,
किसी को घर बनाने में ज़माने बीत जाते हैं,

कभी काली स्याह रातें भी पल पल की लगती हैं,
कभी सूरज को आने में ज़माने बीत जाते हैं,

कभी खोला घर का दरवाजा तो मंजिल सामने थी,
कभी मंजिल को पाने में ज़माने बीत जाते हैं,

चंद लम्हों में टूट जाते हैं उम्र भर के वो बंधन,
वो बंधन जो बनाने में ज़माने बीत जाते हैं....!!!!

दिन गुज़र गए वो मस्ताने, पर याद अभी तक बाकी है...!!!

इक खाब सुहाना टूट गया, एक ज़ख्म अभी तक बाकी है,
जो अरमा थे सब ख़ाक हुए, बस राख अभी तक बाकी है,

जब उड़ते थे परवाज़ थी, सूरज को छूने निकले थे,
सब पंख हमारे झुलस गए, पर चाह अभी तक बाकी है,

पर्वत से अक्खड़ रहते थे, तूफानों से भीड़ जाते थे,
तिनको के जैसी बिखर गए, पर ताव अभी तक बाकी है,

लहरों से बहते थे हरदम, दीवाने थे मतवाले थे,
दिन गुज़र गए वो मस्ताने, पर याद अभी तक बाकी है...!!!

यह पलकें भीग जाती हैं,दो आंसू टूट गिरते हैं,

मुकद्दर के सितारों पर,
ज़माने के इशारों पर,
उदासी के किनारों पर,

कभी वीरान शहरों में,
कभी सुनसान राहों पर,

कभी हैरान आखों में,
कभी बेजान लम्हों में,

तुम्हारी याद चुपके से,
कोई सरगोशी करती है,

यह पलकें भीग जाती हैं,
दो आंसू टूट गिरते हैं,

मैं पलकों को झुकाता हूँ,
बज़ाहिर मुस्कुराता हूँ,
फक़त इतना कह पाता हूँ,

मुझे कितना सताते हो,
मुझे तुम याद आते हो...!!!

अजनबी शहर के अजनबी रास्ते,

अजनबी शहर के अजनबी रास्ते,
मेरी तन्हाई पर मुस्कुराते रहे,
मैं बहुत देर तक यूं ही चलता रहा,
तुम बहुत देर तक याद आते रहे,
ज़हर मिलता रहा ज़हर पीते रहे,
रोज़ मरते रहे रोज़ जीते रहे,
ज़िंदगी हमें आज़माती रही,
और हम भी उसे आज़माते रहे,
ज़खम जब भी कोई ज़हन्-ओ-दिल पर लगा,
ज़िंदगी की तरफ इक दरीचा खुला,
कल कुछ ऐसा हुआ मैं बहुत थक गया,
इसलिये सुन के भी अनसुनी कर गया,
कितनी यादों के भटके हुए कारवां,
दिल के ज़ख्मों के दर खटखटाते रहे...!!!

इक बार कहो तुम मेरी हो...!!!

मंज़िल का कोई नाम ना मिले,

जब यूं ही कभी बैठे बैठे,
कुछ याद अचानक आ जाये,
हर बात से दिल बेज़ार सा हो,
हर चीज़ से दिल घबरा जाये,
करना भी मुझे कुछ और ही हो,
कुछ और ही मुझसे हो जाये,
कुछ और ही सोचूं दिल में मैं,
कुछ और ही होंठों पे आ जाये,

जब चांदनी दिल के आंगन में,
कुछ कहने मुझ से आ जाये,
इक ख्वाब ज़हन से छूटे कोई,
अहसास पे मेरे छा जाये,
जब ज़ुल्फ परेशां चेहरे पे,
कुछ और परेशां हो जाये,
कुछ दर्द भी दिल में होने लगे,
और सांस भी बोझल हो जाये,

जब शाम ढ़ले चलते चलते,
मंज़िल का कोई नाम ना मिले,
हंसता हुआ इक आगाज़ मिले,
रोता हुआ इक अंज़ाम मिले,
इस दिल को कोई पैगाम मिले,
और सारी वफाओं के बदले,
मुझ को ही कोई इल्ज़ाम मिले,

ऐसे ही किसी एक लम्हे में,
चुपके से कभी खामोशी में,
कुछ फूल अचानक खिल जायें,
कुछ बीते लम्हे याद आ जायें,
उस वक़्त तेरी याद आती है,
शिद्दत से तेरी याद आती है...!!!

मुझे याद कोई दुआ नहीं, मेरे हमसफ़र अभी सोच ले,

मुझे याद कोई दुआ नहीं, मेरे हमसफ़र अभी सोच ले,
तू मेरी जबीं पे लिखा नहीं, मेरे हमसफ़र अभी सोच ले,

अभी रास्ता भी है धुल में, अभी फायदा भी है भूल में,
अभी मुझे तुझसे गिला नहीं, मेरे हमसफ़र अभी सोच ले,

मैं जन्म जन्म से नाराज़ हूँ, मैं जन्म जन्म से उदास हूँ,
मैं कभी भी खुल के हँसा नहीं, मेरे हमसफ़र अभी सोच ले,

तू है ख्वाब ख्वाब पुकारता, मेरी आँख में नहीं अश्क भी,
मैं मुद्दतों से जिया नहीं, मेरे हमसफ़र अभी सोच ले,

तुझे खुशबुओं की है आरज़ू, तुझे रौशनी की है जुस्तजू,
मैं हवा नहीं, दिया नहीं, मेरे हमसफ़र अभी सोच ले,

तुझे आंसुओ का पता नहीं, तुझे रत'जगों का गुमां नहीं,
तुझे इस से आगे पता नहीं, मेरे हमसफ़र अभी सोच ले,

मुझे ढूँढता ही फिरेगा तू, ना जियेगा ना मरेगा तू,
मैं कभी भी घर पे मिला नहीं, मेरे हमसफ़र अभी सोच ले,

कहो लौटना है किसे यहाँ, मेरे दर्द सुन मेरे मेहरबां,
मेरे पास वक्त ज़रा नहीं, मेरे हमसफ़र अभी सोच ले...!!!

Thursday 27 January 2011

दुनिया ने दिया वक्त तो लिखेंगे किसी दिन,

ख़ुद अपने लिए बैठ कर सोचेंगे किसी दिन,
यूँ है के तुझे भूल के देखेंगे किसी दिन,

बैठ के ही फिरते हैं कई लफ्ज़ जो दिल मैं,
दुनिया ने दिया वक्त तो लिखेंगे किसी दिन,

जाती है किसी झील की गहराई कहाँ तक,
आँखों में तेरी डूब कर देखेंगे किसी दिन,

खुसबू से भरी शाम मैं जुगनू के कलम से,
इक नज़्म तेरे वास्ते लिखेंगे किसी दिन,

सोयेगे तेरी आँख की खुलावत मैं किसी रात,
साए में तेरी जुल्फ के प्रियराज जागेंगे किसी दिन .......

हार दुनिया ने मान ली "PK"

हमने गुलशन उजड़ते देखा है
भाई-भाई को लड़ते देखा है

इतनी वहशत जुदाई से 'तौबा'
ख़्वाब तक में बिछड़ते देखा है

बोझ नजदीकियाँ न बन जाएँ
कीड़ा मीठे में पड़ते देखा है

एक बस दिल की बात सुनने में
हमने रिश्ते बिगड़ते देखा है

अब तो गर्दन बचाना है मुश्किल
पाँव उनको पकड़ते देखा है

हार दुनिया ने मान ली "PK"
जब तुझे जिद पे अड़ते देखा है

Sunday 9 January 2011

.पथिक..................................

है घनघोर अंधेरा मगर
वह पथिक चला जा रहा है।
न कोई आस है न कोई पास है।
न मंजिल के मिलने की आस है।।
है घनघोर अंधेरा मगर
वह पथिक चला जा रहा है।।

पसीने से लतपथ है काया
भूख ने छीन लिया है अपना साया।
कर्म वो अपना किए जा रहा है।
वह पथिक है चला जा रहा है।।

जो भी मिलता है इस रास्ते में।
वो करता है उडने की बातें।
और दिखाता है सपनों की दुनिया।
पर हकीकत तो इससे परे है।
बस रास्ता ही संग चला जा रहा है।
कर्म वह अपना किए जा रहा है
वह पथिक है इसलिए चला जा रहा है।

हंसती आंखों में भी गम पलते हैं पर कौन जाए इतनी गहराई में।

हंसती आंखों में भी गम पलते हैं पर कौन जाए इतनी गहराई में।
अश्कों से ही समंदर भर जाएंगे बैठो तो जरा तन्हाई में।।

जिंदगी चार दिन की है इसे हंस कर जी लो।
क्या रखा है आखिर जमीन ओ जात की लडाई में।।

तुमसे मिलने की चाहत हमे कहां कहां न ले गई।
वफा का हर रंग देख लिया हमने तेरी जुदाई में।।

जिस सुकून के लिए भटकता रहा दर दर Prashant
या खुदा वो छुप कर बैठी रही कहीं तेरी खुदाई में।।

हां Mम्मी मैंने देख ली है दुनिया।।

अब खुद उठकर पी लेता हूं पानी।
अब जली रोटियां भी खा लेता हूं।
अब नहीं खलता खाने में सब्जी का न होना।
मां अब मैंने देख ली है दुनिया।।

अब कोई नहीं पूछता कहां गए थे।
अब कोई नहीं पूछता क्या कर रहे हो।
अब कोई नहीं पूछता आगे क्या करोगे।
अब्बू अब मैंने देख ली है दुनिया।।

अब मुझसे नहीं लडते मेरे भाई।
अब बहन नहीं करती कोई जिद।
अब दोस्त नहीं ले जाते घूमने के लिए।
अब मैंने देख ली है दुनिया।।
हां अम्मी मैंने देख ली है दुनिया।।

अपने दरवाजे पर खडा रहता हूं जोकर बन कर। जरा सी चाहत है मुसाफिरों को हंसाने की।।

बात पते की है इसलिए बतानी थी।
अब तो आदत सी हो गई है मुस्कुराने की।।

उन्होंने कह रखा है कि मुंह नहीं खोलना।
इसलिए अपनी आदत है गुनगुनाने की।।

रूठने वालों का दर्द हमको मालूम है।
इसलिए कोशिश करते हैं सबको मनाने की।।

अपने दरवाजे पर खडा रहता हूं जोकर बन कर।
जरा सी चाहत है मुसाफिरों को हंसाने की।।

हमसफर दोस्तों इस बात का ख्याल रखना।
तुम्हारे एक साथी की आदत है डगमगाने की।।

किसी से वादा बडा सोच समझ कर करते हैं।
क्या करें दिमाग में एक कीडा है जो सलाह देता है इसे निभाने की।।

बात पते की है इसलिए बतानी थी।
अब तो आदत सी हो गई है मुस्कुराने की।।

मिलते थे जिनसे रोज वो जाने किधर गए। तेरे शहर में तुझे ढूढते जमाने गुजर गए।।

मिलते थे जिनसे रोज वो जाने किधर गए।
तेरे शहर में तुझे ढूढते जमाने गुजर गए।।

टुकडों टुकडों की नींद से बटोरे थे कुछ सपने।
ऐसी हवा चली कि वो सारे बिखर गए।।

वक्त ने क्या सितम किया कैसे बताएं हम।
वो हर शहर उजड गया हम जिधर गए।।

न जाने क्या कशिश थी उसकी निगाह में।
जिन पर पडी नजर वो कातिल सुधर गए।।

मिलते थे जिनसे रोज वो जाने किधर गए।
तेरे शहर में तुझे ढूढते जमाने गुजर गए।।

कुछ इस तरह से जिंदगी सताती रही मुझे। हर लम्हा मारकर भी जिलाती रही मुझे।।

कुछ इस तरह से जिंदगी सताती रही मुझे।
हर लम्हा मारकर भी जिलाती रही मुझे।।

गफलत में न पड जाउं कभी किसी गुमान में।
हर रोज एक बार वो आइना दिखाती रही मुझे।।

इस डर से कि कभी दूर न हो जाउं उससे मैं।
रह रह के बार बार वो बुलाती रही मुझे।।

संजीदगी मेरे चेहरे पे नागवार थी उसको।
चेहरा बदल बदल कर वो हंसाती रही मुझे।।

हर रंग दुनियादारी का देख रखा था उसने।
इसलिए अपने आंचल में वो छुपाती रही मुझे।।

कुछ इस तरह से जिंदगी सताती रही मुझे।
हर लम्हा मारकर भी जिलाती रही मुझे।।