Tuesday, 8 February 2011

पी के शर्मा

है बात अलग ये कोई क्‍या क्‍या कमाता है,
कोई दाम कमाता और कोई नाम कमाता है ;
आराम किसे नसीब है इस दुनिया में यारों,
कोई हंसके बिताता, कोई रोके बिताता है ;
हैं दर्द बहुत यूं तो हर सीने में लेकिन ,
कोई खुद से छिपाता, कोई सबको बताता है ;
उस शख्‍स का तो यारों अंदाज जुदा है कुछ,
वो दिल की तपिश को भी आंसू से बुझाता है;
कोई काम नहीं उसको ये सच है मगर लेकिन,
वो सुबह का निकला, घर रात को आता है;
जीने की तमन्‍ना में हम रोज ही मरते हैं,
कहीं सौदा इज्‍ज्‍त का, कोई आन गवांता है;
बदलेंगी नहीं रोकर ये हाथों की रेखाएं ,
अनमोल घड़ी तू फिर क्‍यों यूं ही गवांता है.
ले दे के फ़क़त मैंने बस इतना कमाया है,
प्रशांत अंधेरों को खुद जल के भगाता है ;

No comments:

Post a Comment